गुरुवार, 23 जुलाई 2015

तानाशाह...




खुद को 
सही साबित करने के लिए 
दमनकारी बन जाइये 
दबा दीजिये 
वो सारी आवाज़ें जो आपके खिलाफ हैं 
खुद को 
सही साबित करने लिए 
बन जाइए तानाशाह 
कुचल डालिये आप पर उंगली उठाने वालों को...
यही तो होता आया है 
जब सत्ता डोलने लगती है 
जब सवाल खड़े होने लगते 
जब आवाज़ें उठने लगती हैं 
तो सत्ताधारी बन जाता है तानाशाह... 
ऐसा तानाशाह 
जो रौंद देता है 
लोकतान्त्रिक व्यवस्था को 
तोड़ डालता है सारी सीमायें 
ऐसा तानाशाह 
जो चीख पुकार नहीं सुना 
जो अहंकारी हो जाता है 
लेकिन वो भूल जाता है 
परिवर्तन प्रकृति का नियम है 
जो आया है वो जायेगा 
जाओगे तुम भी 
कब तक बने रहोगे तानाशाह 
कब तक बचाओगे अपना साम्राज्य

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

तुम्हें देवी चाहिए...




तुम्हें 
देवी चाहिए पूजने के लिए
तुम्हें 
दुर्गा चाहिए दुष्टों का 
नाश करने के लिए
तुम्हें 
लक्ष्मी चाहिए
तुम्हारा घर भरने के लिए
तुम 
सरस्वती को पूजोगे
शिक्षा और  बुद्धि के विकास के लिए
तुम्हें 
सीता चाहिए
जो वनवास सहे
जो अग्नि परीक्षा दे
तुम्हें 
मरियम चाहिए
जो ईसा को जन्म दे
तुम्हें फातिमा चाहिए
जिसकी तुम मिसालें दो
तुम्हें 
हाड़ मांस का पुतला चाहिए
तुम्हें 
औरतें नहीं चाहिए
वो औरतें जो ज़िंदा हों
वो औरतें जो आवाज़ उठाती हों
वो औरतें जो चिखती हों चिल्लाती हों
वो औरतें जो तुम्हारी प्रतिद्वंदी हों
वो औरतें जो तुम्हें तुम्हारा चेहरा दिखाती हों
वो औरतों जो तुम्हें तुम्हारा सच बताती हों
तुम्हें औरतें नहीं चाहिए
तुम्हें देविया चाहिएं
पूजने के लिए 
और औरतें चाहिए रौंदने के लिए....

सोमवार, 15 जून 2015

आगे बढ़ो...




एक दिन 
मैंने ही तुमसे कहा था 
आगे बढ़ो 
क्यों ठहरे हुए हो तुम 
क्यों रुक गए हो मुझ पे...
कह तो दिया था तुमसे 
अतीत कभी पलट कर नहीं आता 
गुज़रा वक़्त कभी खुद को नहीं दोहराता 
मैं बीता कल हूँ तुम्हारा 
वो कल 
जो लौट के नहीं आ सकता 
वो कल 
जो आज नहीं बन सकता है 
फिर भी दिल चाहता है 
सबकुछ भूलकर लौट आऊं 
छटपटाती तो हूँ 
सारे बंधन तोड़ के 
तुझ में सिमट जाऊं 
लेकिन 
मुझे मेरे ही शब्द रोक लेते हैं 
मैं ठहर जाती हूँ उस लम्हें में 
जब कहा था तुमसे 
आगे बढ़ो तुम 
मेरा कहा ही तो 
माना है तुमने 
मेरे लिए ही तो 
मुझे छोड़ के 
आगे बढ़ गए हो तुम 

रविवार, 3 मई 2015

पवित्र बंधन



चाहे 
शादी बन जाए
ज़िंदगीभर का नासूर
चाहे 
विवाह में टूट जाएं 
सारी मर्यादाएं
चाहे 
रोज़ रौंदे जाएं 
पत्नी के जज़्बात
चाहे 
दिन रात होता हो
उसका अपमान
चाहे 
वो मर-मर कर 
जीती हो
चाहे 
वो जूते-लात घूंसे 
खाती हो
चाहे वो
जानवरों की तरह
पीटी जाती हो
चाहे 
उसे बिस्तर पर रोज़
हवस का शिकार बनाया जाए
चाहे 
उसे मुर्दा लाश 
समझा जाए
कुछ फर्क नहीं पड़ता
हमारे सभ्य समाज को 
क्योंकि
विवाह तो पवित्र है बंधन
इसीलिए 
पति कर सकता है 
उसका शोषण
उसके साथ जबरन संबंध
बना सकता है
सारी पवित्रताएं ध्वस्त 
कर सकता है
विवाह एक पवित्र बंधन है
इसलिए पति को
बलात्कार का अधिकार है...

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

शब्द नहीं मिलते...



ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में
एहससात से भरा हुआ रिश्ता
ज़ज़्बातों से लबलेज़ हम तुम
फिर क्यों
बयां नहीं कर पाती
कुछ भी हमारे बारे में
कैसे मिले थे हम-तुम
कहां हुई थी पहली मुलाकात
क्या कहा था तुमने मुझसे पहली बार
वो हर इक बात
जो तुमसे-मुझसे जुड़ी थी
वो तुम्हारा दिया तोहफ़ा
वो खुशी का लम्हा
वो गिले वो शिकवे
वो नाराज़गी
वो आंसू
वो सदियों की जुदाई
कुछ भी नहीं लिख पाती
बयां नहीं कर पाती कुछ भी
लफ्ज़ हमेशा से कम थे
हमारे दरमियां
कहां बोले कभी
खुल के एक दूसरे से
शब्द तो आज भी नहीं
मेरे पास
तभी तो
ना जाने
कितनी बार ऐसा हुआ
कि मैं लिखते-लिखते रह गई
तुम्हारे-मेरे बारे में



मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

अपने हिस्से का चाँद...



अपने हिस्से का चाँद
तुम्हारे शहर भेजा है
वो चाँद जो हमारे
इश्क़ का गवाह है
वो चाँद ...

जिससे रौशन थी हमारी दुनिया
वो चाँद
जो हमारी खुशियों का
साझेदार है
वो चाँद
जो हमारी ज़िन्दगी का
राज़दार है
वो चाँद
जो ख़फ़ा था
हमारे झगड़े पे
वो चाँद
जो उदास था
हमारे आंसुओं के संग
वो चाँद
जो ग्रहण में खो गया था
हमारे जुदा होने पे
अपने अपने हिस्से का चाँद
ले आये थे हम
वही अधूरा चाँद भेजा है
तुम्हारे शहर
शायद ये चाँद ले आये
तुम्हारी कोई ख़बर
हम दोनों का चाँद बन जाए
खुशियों का सबब....


गुरुवार, 5 मार्च 2015

निर्भया के गुनहगार...



एक मुकेश
तिहाड़ के अंदर है
वो मुकेश
जिसने बलात्कार किया
जिसने अपने साथियों के संग
निर्भया की क्रूरता से हत्या..
वो मुकेश तो
जेल के अंदर है..
लेकिन 
ऐसे कितने मुकेश
घूम रहे हैं हमारे आसपास
रोज़ाना हमारे शरीर का
आंखों से करते हैं बलात्कार...
ऊपर से लेकर नीचे तक घूरती निगाहें
फब्तियां कसते हुए
हमारे जिस्म को 
छूने के लिए बहाने करते हुए...
सभ्य समाज के सफेदपोश
ना जाने कितने
खून के दाग छिपाए हुए हैं...
वो जो 
हमारे कपड़ों का फैसला करते हैं
हमको जीन्स..शॉट्स...स्कर्ट नहीं पहनना है...
हमारे घर से निकलने का समय तय करते हैं
वो जो 
हमारे आसमान को
हमारी उड़ान को
हमारी आज़ादी को
अपनी घिनौनी..क्रूर और बीमार 
मानसिकता से कुचल देते हैं...
जेल में तो 
सिर्फ एक मुकेश बंद है
वो जो
बलात्कारी है..हत्यारा है
लेकिन 
उन हज़ारों करोड़ों मुकेश का क्या
जो कुंठित हैं...मर्दानगी के नशे में चूर हैं
जो तेज़ाब में बुझे हुए हैं
उनका क्या जो
घरों में बच्चियों को नहीं छोड़ते
उनका क्या जो लड़कियों को संपत्ति समझते हैं
नन्हीं कलियों को खिलने नहीं देते
कैसे बंद कर दूं इन्हें जेल में
जो कुंठित मानसिकता के हैं
बलात्कारी..हत्यारे 
ने तो वही कहा
जो आप सोचते हैं
जो आप कहते हैं
क्यों उसके बयान पर बवाल
क्यों उसके सच पर
इतना हंगामा 
आपका हमारा खून तो
घिनौनी मानसिकता पर खौलना चाहिए
तब तो हम
खामोश रहते हैं
क्यो ?
क्योंकि आईना किसी को रास नहीं आता
रोज़ना ना जाने 
ऐसे कितने मुकेश
देते हैं ऐसी वारदातों को अंजाम
ना जाने कितने माननीयों के तथाकथित बयान
चलाते हैं धड़ल्ले से न्यूज़ चैनल्स पर
तब हमको शर्म क्यों नहीं आती
तब हम बैन क्यों नहीं लगाते
कैसे रोंकेगे समाज में खुलेआम घूम रहे 
घिनौनी मानसिकता वाले मुकेश को..
कैसे लगाएंगे उनकी मानसिकता के प्रसारण पर रोक...

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

वो हरा स्वेटर



अलमीरा में
कुछ तलाशते हुए
हाथ लग गया वो
हरे रंग का स्वेटर...
वहीं स्वेटर 
जो तुम लाए थे 
बड़े शौक 
बड़े प्यार से...
ये सोच के 
कि 
बहुत जचेगा
मुझ पे वो 
हरा रंग...
हां 
तुम सही थे
मैं खिल जाती हूं
उस हरे रंग में
और निखर आती है
उस 
हरे स्वेटर में...
शोख, चंचल
खुद पे इतराती 
फिरती हूं...
जब भी 
हाथ लगाती हूं
उस हरे रंग के स्वेटर पर
हमारे रिश्ते की 
पाकीज़गी को 
महसूस कर लेती हूं...
वो रिश्ता जो
अधूरा होते हुए भी
पूरा था...
हम दूर होते हुए
बेहद करीब थे...
जो किसी से ना कहते
वो इक दूजे से 
साझा करते...
आज भी 
संभाल के रखा है
उस अधूरे से 
पूरे रिश्ते को
उसी तरह
जैसे
संभाल के रखा है
तुम्हारा दिया हुआ
वो हरा स्वेटर...


बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

मदर टेरेसा...



दीन-हीन
लाचार और मजबूर
हमने जिनको
कर रखा था 
समाज से बहिष्कृत...
जिनके ज़ख्म 
उनके पिछले जन्म
के पापों के फल थे
हाथों-पैरों का बिगड़ापन 
और बदसूरत सूरत...
कोढ़ी होने की
गाली...घर परिवार 
की नफ़रत भरी नज़र..
घर..गली..बस्ती 
शहरों से मीलों की दूरी..
गंधाते सड़े-गले
इंसान की जानवरों
सी बदतर ज़िंदगी..
हम जिन्हें 
ज़िंदा नहीं समझते
वो मां के आंचल में
नवजात से रहे...
करुणा...संवेदना
इंसानियत की छांव में
हरपल मुस्कराते रहे
मां के प्यार, पवित्रता में
अब मत कुछ और तलाशो
कुछ कर सकते हो तो
समाज और अपने दिमाग से
बढ़ रहे कोढ़ को हटा दो...

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

बार बार देती हूं दस्तक


अपने 
आत्मसम्मान को 
फेंक देती हूं 
नोंच कर...
ज़ोर से बांधकर 
किसी पोटली में
रख देती हूं
सारी नाराज़गी...
जवाब की उम्मीद
किए बगैर ही
खत्म कर दिए 
सारे सवाल...
सच तो 
ये है कि 
मैं रह तो सकती हूं
तुम्हारे बगैर
लेकिन 
डर इस बात का है
कि तुम्हारे पास 
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारे 
अहंकार को सह पाएगा
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारी 
अनकही बातों को
सुन पाएगा...
कोई नहीं होगा
जो तुम्हारी
खामोशी पढ़ पाएगा
मैं डरती हूं
तुम्हारे तन्हां
होने से...
मैं घबराती हूं
तुम्हारे 
तुम में खोने से
इसलिए
मैं बार-बार
खलल डालती हूं
तुम्हारे एकेलेपन में
इसलिए
मैं बार-बार
दस्तक देती हूं
तुम्हारे दिल पर...
इसलिए
मैं बार-बार
देती हूं दस्तक...

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

बस इक क़दम बढ़ाते...



बस 
इक कदम 
तुम बढ़ाते
इक कदम मैं...
यूं हीं
कम होते जाते
हमारे फ़ासले
थोड़ा तुम चलते
थोड़ा मैं...
हाथ जो 
अलग हो रहे थे
साथ जो 
छूट रहा था
हो जाते 
इक साथ
थोड़ा तुम 
आगे बढ़ते
थोड़ा मैं...
रिश्तों पर जमी
बर्फ यूं ही पिघल जाती
थोड़ा 
तुम प्यार जताते
थोड़ा मैं मुस्कराती...
ज़िंदगी 
यू ही गुज़र जाती
इक कदम तुम बढ़ाते
इक कदम मैं...

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

ज़िंदगी समेट ली जाती...




काश बिखरे
सामान की तरह 
समेट ली जाती ज़िन्दगी...
पास रख लिए 
जाते कुछ ख़ास लम्हे...
संजो के रख लेती 
तुम्हारी दी हुई हर सौगात...
वो पहली मुलाक़ात
वो पहली नज़र 
वो पहली कशिश 
वो पहला हर्फ़
दिल में छिपा लेती 
बसा लेती
इन्हीं में अपनी दुनिया...
एक बक्से में 
ताला लगाके रख लेती 
प्यार के उस पहले एहसास को...
ज़माने से बचा लेती 
हमारे जज़्बात को....
कपड़ों की तरह
तह कर लेती 
तुम्हारे दिए हुए ग़मों को 
मिटा देती सारी सिलवटें 
तुम्हारे मेरे रिश्ते की...
काश बिखरे 
सामान की तरहा 
समेट ली जाती ज़िन्दगी...

बुधवार, 28 जनवरी 2015

तुम नहीं हो निदा...


अच्छा हो या बुरा
हर वक़्त साझा किया था
खुशी के साथ साथ
ग़म भी बांटा था हमने...
एक दूसरे को समझा जाना
तुमने मुझे,मैंने तुम्हें पहचाना था
ना कोई शिकवा किया 
ना कोई शिकायत की थी...
फिर क्यों 
हम हो गए जुदा
ना तुमने रोका  
ना मैंने कुछ कहा...
मलाल नहीं 
बस रह गई एक कसक
वादा तो किया था तुमसे
भरोसा भी दिलाया था...
ग़म की तरह 
ज़िंदगी भी बांट लेने के लिए
क़दम भी बढ़ाया था...
लेकिन लौटा दिया 
तुमने मुझे खाली हाथ
कह दिया 
तुम्हारा नहीं 
मेरे ग़म,मेरी ज़िंदगी पर 
सिर्फ मेरा है अधिकार...
अब मत देना कोई सदा
मेरी ज़िंदगी में नही हो
तुम निदा...